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किस्सा एक कहानी का

किस्सा एक कहानी का..

“यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यूं है..” कैफ़ी आज़मी की ग़ज़ल का ये अश’आर मूलतः हम सभी के जीवन दर्शन का स्रोत है, उनके भी जो बौद्धिक चार्वाक हो गए हैं, और उनके भी जो “पद्मपत्रइमाम्बुवं” हो चले हैं।

सवाल पूछना और उसके जवाब तलाशना इंसान होने की पहली पहचान है। जो दुनिया परात की तरह हमारे चारों ओर फैली हुई है, ये दुनिया क्यूँ है, हम सब कहाँ से आए और इससे भी ज़्यादा ज़रूरी सवाल कि हम सब क्यूँ आए, इन सवालों का हमारे अस्तित्व पे भले ही कोई असर न हो, लेकिन ख़ुद को इंसान कहने की मौलिक शर्त पे असर ज़रूर है। एक ओर प्राच्य भारतीय ज्ञान वैश्वानर से उत्पन्न हुई सृष्टि की बात करता है, तो आधुनिक विज्ञान बिग बैंग की। कहानी यूँ है कि हम सब यहाँ लाए गए हैं, लेकिन क्यूँ, और किसकी मर्ज़ी से ये तो अफसानानिगार को ही पता होगा, हम तो बस तुक्का ही मार सकते हैं। तो क्या “अहं ब्रहास्मि” का उद्घोष करने वाले मनुष्य की नियति यही है कि वो इस दुनिया में उसकी इच्छा या अनिच्छा के बिना फेंक दिया जाए और भंवरों पर डूबता उतराता रहे?

जब इन सभी सवालों का संतोषजनक जवाब नहीं मिलता तो घूम फिर के इंसान सोचता है हमें क्या मतलब इतना सर खपा के, जीना है जी लेते हैं, जब मौत आएगी मर जाएंगे। लेकिन वो ये नहीं समझ पाता कि यही तो उस कथाकार की मंशा है, कि उसकी कठपुतली ये न जान जाए कि उसकी डोर का दूसरा सिरा कहाँ है क्योंकि उसको पता है कि अगर ऐसा हो गया तो कठपुतली सारे धागे तोड़ के नाटक ही खत्म कर देगी या हो सकता है कठपुतली कोई नया किस्सा किसी दूसरे अंदाज़ में सुनाए, जो शायद अभी के अफसानानिगार को पसंद ही न आए। तो इसलिए खेल चलता है, चलता रहेगा, आप निश्चिंत हो के सोइये, क्योंकि आप तो कठपुतली बन के ही खुश हैं !

फोटो साभार: गूगल